Sunday, April 9, 2017

रोटियों से भी लड़ी गयी आज़ादी की जंग +रमेशराज




रोटियों से भी लड़ी गयी आज़ादी की जंग

+रमेशराज
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    कुछ कांग्रेस के पिट्टू इतिहासकार आज भी जोर-शोर से यह प्रचार करते हैं कि बिना खड्ग और बिना तलवार के स्वतंत्रता संग्राम में कूदने वाले कथित अहिंसा के पुजारियों के आत्मसंयम, आत्मबल और स्वपीड़ासे भयभीत होकर आताताई और बर्बर अंग्रेज भारत को आजाद करने को मजबूर हुए। यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की असली तस्वीर नहीं है। अगर आजादी सावरमती के संत के ब्रहमचर्य के प्रयोगोंके बूते आयी तो कांग्रेस उस काल के 1942 के जन आंदोलन को भारतीय जनमानस के सम्मुख क्यों नहीं लाती, जिसमें भले ही गांधी जी ने अहिंसात्मक आंदोलन किये जाने पर जोर दिया था, किंतु सरकारी दमन से विक्षिप्त और क्रुद्ध होकर कथित अहिंसा को नकारते हुए जनता ने अंग्रेजों के सरकारी 250 रेलवे स्टेशनों को नष्ट कर दिया। 600 डाकघरों को आग के हवाले किया। 3500 टेलीफोन और टेलीग्राम के तारों को काट दिया। 70 थानों को जलाकर राख किया। 85 सकारी भवनों को धूल-धूसरित कर डाला। 9 अगस्त 1942 से लेकर 31 दिसम्बर 1942 तक बौखलायी सरकार ने 940 स्वतंत्रता सेनानियों को गोलियों से भूनकर सदा के लिये संसार से विदा कर दिया। पुलिस और सेना की गोलियों की बौछार के बीच 1630 क्रान्तिवीर घायल हुए। 18000 सेनानियों को रक्षा कानून के अंतर्गत तो 60229 सेनानियों को हिंसा फैलाने और रक्तपात करने के आरोप में सलाखों के पीछे भेजा गया।
    भारत छोड़ो आन्दोलन का यह क्रान्तिकारी स्वरूप गांधी जी की अहिंसा और उनकी स्व पीड़नकी नीति पर एक तमाचा था। इस तमाचे और अहिंसावादियों के तमाशे के बीच सिर उठाती कटु सच्चाई केवल यही बयान करती है कि भारतवर्ष गांधी जी की अहिंसा से नहीं, क्रान्ति की फैलती ज्वाला के कारण आजाद हुआ। इस तथ्य को चर्चिलइग्लैंड की लोकसभा में इस प्रकार रखते हैं-‘‘कांग्रेस ने अब अहिंसा की उस नीति को, जिसे गांधी जी एक सिद्धांत के रूप में अपनाने पर जोर देते आ रहे थे, त्याग दिया है और क्रान्तिकारी आन्दोलन का रास्ता अपना लिया है।’’
    भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर यदि समग्र दृष्टि से सोचा-विचारा जाये तो यह तथ्य छुपा नहीं रह जाता है कि जो क्रान्ति की ज्वाला 1857 में भड़़की थी, उसे भड़काने में उन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का महत्वपूर्ण योगदान है जो 1780 से ही सक्रिय थे। तत्समय एक विदेशी नागरिक ने कलकत्ता से देश का पहला अखबार बंगाल गजट’ और ‘जनरल एडवाइजरजिसे हीकीज गजटके नाम से भी पुकारा जाता है, में तत्कालीन गवर्नर जनरल वारेन हैस्टिंग्ज और कम्पनी के अधिाकरियों की अनीति और मनमानी पर प्रहार किये थे। 1785 में बंगाल जर्नल’, ‘द वर्ल्ड ’, ‘टेली ग्राफ’, ‘कलकत्ता गजटनामक समाचार पत्रों में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अफसरों की घूसखोरी, अन्य काले कारनामों के खिलाफ जमकर लिखा गया। 9 अप्रैल 1807 को आम सभाओं पर प्रतिबंध लगने के बाद क्रान्तिवीरों ने पर्चे छापकर बाँटे और क्रान्ति की आग धधकायी। भारतीय पत्रकारिता के पहले शहीद मौलवी मोहम्मद वकार ने फिरंगियों और उनकी सरकार के खिलाफ  जमकर कलम चलायी।
    स्वतंत्रता संग्राम के कलम के सिपाहियों में एक तरफ  जहाँ लोकमान्य तिलक, विवेकानंद, भगत सिंह, गणेश शंकर विद्यार्थी, प्रेमचंद, बालकृष्ट भट्ट, महावीर प्रसाद द्विवेदी, बालमुकुन्द गुप्त, राजा रामपाल सिंह, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, यशपाल, मन्मथनाथ गुप्त, सावरकर, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जैसे अनेक पुरोधा हैं, वहीं तीर-तलवार लेकर अंग्रेजों का रक्त-सत्कार करने वालों में रानी लक्ष्मीबाई, मदनलाल धींगरा, खुदीराम बोस, तात्या तोपे, मंगल पांडेय, सूर्यसेन, दामोदर चाफेकर, बेगम हजरत महल आदि का नाम जगत विख्यात है। लाला लाजपतराय, विपिनचन्द्र पाल, स्वामी श्रद्धानंद, सुभाषचन्द्र बोस चन्द्रशेखरआजाद , भगत सिंह, सूर्यसेन, अशफाक़उल्ला, रामप्रसाद बिस्मिल   आदि का जनभावनाओं को उभारकर अंगेजों के प्रति जबरदस्त विरोध-प्रदर्शन करना भी एक ऐसा क्रान्तिकारी हथियार रहा है, जिसके आगे अंगेज थर-थर कांप उठे।
    क्रान्ति की भूमिका तैयार करने में कवियों-शायरों ने कविता को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करने का भी काम किया। स्वतंत्रता संग्राम का पैगाम जन-जन तक पहुँचाने में महीदुद्दीन सलीम, शौक किदवई, फैज, मजाज, कैफी आजमी, साहिर लुधिायानवी, बहादुरशाह जफर, तिलक चंद, गोपीनाथ, झम्मन, आनंद नारायण मुल्ला, जोश मलीहाबादी, सोहनलाल द्विवेदी, राम प्रसाद बिस्मिल, आदि का योगदान भी अविस्मरणीय है।
    क्रान्ति की आग को घर-घर तक फैलाने या पहुँचाने के लिये रोटियोंका प्रयोग भले ही आश्चर्यजनक लगे किन्तु यह भी एक ऐसी सच्चाई है जिसका वर्णन इतिहास के पन्नों में दर्ज है। 1857 में एक तरफ जहाँ क्रान्तिकारियों की तलवारें चमकीं, बन्दूकें और तोपें गरजीं वहीं क्रान्ति की ज्वाला धधकाने के लिये और लोगों को अंग्रेजों के विरूद्ध संगठित करने के लिए गावं-गांव में चपातियाँभेजी गयीं। चपातियाँ म.प्र. के इन्दौर से निमाड़ में बाँटी गयीं। उत्तर भारत के अनेक जिलों जैसे मथुरा, अलीगढ़, एटा, मैनपुरी, बुलंदशहर, मेरठ आदि में ये चपातियाँ 1857 के जनवरी-फरवरी माह में बाँटी गयी। रोटियाँ बँटवाने का यह कार्य मद्रास में भी हुआ जिसके फलस्वरूप वैल्लौर में विप्लव हुआ। ये चपातियाँ कौन बनाता है और कहाँ से भेजी जाती हैं, इसका का पता अंगे्रजों के जासूस नहीं लगा पाये। चपातियों के माधयम से क्रान्ति का संदेश भेजने का ब्यौरा अंग्रेज अफसर थार्नाईल की डायरी के पृष्ट 23 पर दर्ज है।
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Saturday, April 8, 2017

कांग्रेस के नेताओं ने ही किया ‘तिलक’ का विरोध +रमेशराज




कांग्रेस के नेताओं ने ही किया तिलकका विरोध

+रमेशराज
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    बंगाल के कांग्रेस नेता विपिनचन्द्र पाल, पंजाब के स्वतंत्रता संग्राम के नायक लाला लाजपतराय और महाराष्ट्र में जन्मे राष्ट्रीय नेता बाल गंगाधार तिलक कांग्रेस के नरमपंथी बुद्धिजीवी लेखकों, समाजसेवियों, विचारकों और मानवतावादियों से अलग किन्तु एक स्पष्ट राय यह रखते थे कि ‘‘भारत में ब्रिटिश शासन निरंकुश हो गया है। वह जनता की भावनाओं की थोड़ी-सी भी चिन्ता नहीं करता।’’
    ‘लाल-बाल-पालके नाम से विख्यात यह टीम अन्ततः इस निष्कर्ष पर पहुँची कि अंग्रेजी साम्राज्य की जड़ों को भारत से उखाड़ने के लिए आवश्यक है कि राष्ट्रीय शिक्षा, राष्ट्रभाषा हिन्दी पर जोर देकर पूरे राष्ट्र को एक राष्ट्रीय भावना के सूत्र से बांधा जाये। विदेशी विशेषकर इंग्लैंड में बनी वस्तुओं का पूरी तरह वहिष्कार किया जाये। पूरे भारतवर्ष में शराब के प्रचलन पर चोट की जाये ताकि अंग्रेजों की अर्थव्यवस्था जर्जर हो जाये। भारत में अर्धशासन, कथित सुशासन के बजाय स्वराज्यकी माँग को बुलंद किया जाये।
    कलकत्ता में हुए कांग्रेस के अधिवेशन के दौरान तिलक ने अपने ओजस्वी भाषण के माध्यम से कहा - ‘‘न हमारे पास शस्त्र हैं और न उनकी कोई आवश्यकता है किन्तु विदेशी वस्तुओं के वहिष्कार के रूप में हमारे पास ऐसा राजनीतिक हथियार है जो अंग्रेजों की आर्थिक रीढ़ को तोड़ने में अचूक साबित होगा। मुट्ठीभर गोरे लोगों का निरंकुश शासन हम भारतीयों की कमजोर संकल्प शक्ति के बूते ही चल रहा है। यदि हम सब एकजुट होकर निसस्वार्थ भाव से अंग्रेजों की उस हर वस्तु का वहिष्कार करने पर जुट जायें, जो किसी न किसी प्रकार की गुलामी का प्रतीक है तो यह कोई असंभव कार्य नहीं कि अंग्रेज भारत न छोडें।’’
    तिलक ने आगे कहा - ‘‘माना हममें सशस्त्र विद्रोह की शक्ति नहीं है लेकिन क्या हममें आत्मनिषेध और आत्म संयम का बल भी नहीं है जिसके द्वारा अंग्रेजों की हम पर शासन करने इच्छाशक्ति को नष्ट न किया जा सके? यदि हम अंग्रेजों को शासन चलाने में कोई सहायता नहीं देंगे तो उल्टे अंग्रेज हमसे भयभीत होंगे। राजस्व वसूली और शांति बनाये रखने में परोक्ष-अपरोक्ष दिया गया हमारा सहयोग ही तो पराधीनता के असल रोग को बढ़ावा देता है। भारत से बाहर होने वाले युद्धों में हम जन-धन से अंग्रेजों को सहायता आखिरकार क्यों करते हैं? हमें न्यायालयों के काम में अंग्रेजों की मदद करना बंद कर देना चाहिए। हमें अपने विवाद सुलझाने के लिए अपने न्यायालय विकसित करने होंगे। अब समय आ गया है कि हम सरकार को टैक्स भी न दें। अंग्रेजों का हर प्रकार से बहिष्कार ही हमारा राजनीतिक हथियार है। क्या आप लोग इन सब बातों के लिये तैयार हैं। यदि हाँ तो आप कल ही स्वतंत्र हो जाऐंगे।’’
    बाल गंगाधार राव तिलक के स्वराज के इस सिंह-घोष ने एक तरफ जहाँ हजारों कांग्रेसी कार्यकर्ताओं में नव उत्साह का संचार किया, वहीं अंग्रेजी हुकूमत के प्रति नरम रवैया अख्तियार करने वाले उन नेताओं को तिलक का यह भाषण नश्तर की तरह चुभ गया, जिनकी राजनीति राष्ट्रभक्ति के मिथ्याभिमान के बूते चलती थी, जो विचारक, चिन्तक, लेखक, समाजसुधारक की भूमिका में तो बने रहना चाहते थे, किन्तु अंग्रेजों की कृपा पर आश्रित रहकर। तन और मन से अंग्रेज बनकर अंग्रेजी हुकूमत का छद्म विरोध करने वाले ऐसे ही कथित देशभक्तों ने जल भुनकर लाला लाजपत राय द्वारा बुलाये जाने वाले कांग्रेस के अगले अधिवेशन के प्रस्ताव को तो ठुकराया ही,  साथ ही लाल-पाल-बाल को अलग-थलग करने के लिये पूरी योजना के साथ लाहौर के स्थान पर नागपुर में कांग्रेस का अगला अधिवेशन करने पर मुहर लगा दी।
    देश को स्वाधीनता का पाठ पढ़ाने वाले नरमपंथी नायक यहीं नहीं चुप बैठे। इन्होंने सूरत में अचानक मुम्बई प्रांतीय सम्मेलन का आयोजन कर तिलक के राष्ट्रीय शिक्षाऔर बहिष्कारके प्रस्ताव को रद्दी की टोकरी में डाल दिया। इतना ही नहीं इलाहाबाद के प्रादेशिक  सम्मेलन में बाल-लाल-पाल के कार्यकर्ताओं को भाग लेने से रोक दिया। और 1906 में कलकत्ता में आयोजित अधिवेशन में इन्ही छद्म राष्ट्रचिन्तकों ने स्पष्ट कर दिया कि तिलक व उनके साथियों के लिए कांग्रेस में अब कोई जगह नहीं है।
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गांधी की हर नीति के विरोधी थे ‘ सुभाष ’ +रमेशराज




गांधी की हर नीति के विरोधी थे सुभाष

+रमेशराज
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    नेताजी सुभाषचन्द्र बोस भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक ऐसे चमकते सितारे थे, जिसमें सच्ची देशभक्ति का ओज था। इस सितारे की आभा के सम्मुख न नेहरू टिक पाते थे और न अंहिसा के मंत्रों का जाप करने वाले महात्मा गांधी। अपने समय के सर्वोच्च क्रान्तिकारी सुभाष आई.सी.एस. उत्तीर्ण ऐसे विचारवान, विद्वान और महान नेता थे, जो अंग्रेजों के सम्मुख भारतीय स्वतंत्रता की भीख मांगने वाले कांग्रेसी नेताओं के समान याचक की भूमिका में कभी नहीं रहे। वे 26 वर्ष की युवा अवस्था में अपनी प्रतिभा के कारण कलकत्ता के मेयर बने। मेयर पद पर रहकर भी उन्होंने अंग्रेजों की शोषणवादी अनीतियों का जमकर विरोध किया। उनका विरोध इतना आक्रामक होता था कि अंग्रेजों के सम्मुख वे हर बार एक नया खतरा बनकर उपस्थित होते थे। अंग्रेजों के प्रति आक्रामक रवैये के कारण ही उन्हें अनेक बार जेल जाना पड़ा।
    नेताजी सुभाषचन्द्र बोस जब कांग्रेस के कार्यकर्ता बने तो अपनी कुशल रणनीति और अदभुत् कार्यशैली के कारण ख्याति के उच्च शिखर पर पहुंच गये। उनकी विचारधारा और ख्याति से प्रभावित होकर सन् 1938 में जब उन्हें कांग्रेस के हरिपुर अधिवेश का अध्यक्ष बनाया गया तो उन्होंने गांधी जी की अंहिसावादी विचारधारा की खिल्ली उड़ाते हुए कहा-गांधी जी का राजनीतिक ही नहीं सामाजिक दर्शन भी खोखला है। गांधी जी जिसे अंहिसा कहते हैं, उसका दूसरा नाम कायरता है। एक गोरा बंदर हमें  घुड़काता है और हम थर-थर कांपना शुरू कर देते हैं। भाइयो, आप ही सोचो, क्या इस तरीके से भारत को आजाद करा लोगे? अगर भारत को आजाद कराना है तो वीर बनो। माता की आजादी के लिये अपनी कुर्बानी देने को तैयार रहो ।
    गांधी जी के ब्रह्रमचर्य प्रयोंगों, प्रेम की आचार संहिता और अंग्रेजों की हर बात पर नतमस्तक हो उठने की नीति के सुभाष कितने विरोधी थे, यह 28 अक्टूबर 1940 को प्रेसीडेंसी जेल से अपने भाई शरदचन्द्र बोस को लिखे पत्र से उजागर हो जाता है। नेताजी पत्र में लिखते हैं-जो आदर्शवाद व्यावहारिक स्तर पर केवल शून्य को प्रकट करता हो, ऐसे आदर्शवाद के बूते गांधी जी स्वतंत्र भारत का दम्भ भरते हैं। यह व्यावहारिकता नहीं, केवल  विद्रूपता है। इसका पतिणाम सुखद नहीं निकल सकता है। यह धोखाधड़ी का एक ऐसा खेल है जिससे ब्रिटिश सरकार का तो भला हो सकता है, किन्तु भारतीय जनता का नहीं। मैं गांधी जी की राजनीति के बारे में जब भी सोचता हूं तो लगता है कि उल्टी सोच वाले लोगों के हाथों में यदि स्वराज आ गया तो देश दुर्गति के दलदल में फंस जायेगा।
    नेताजी सुभाष के इन क्रान्तिकारी विचारों का प्रभाव उस समय कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में इतना पड़ा कि सन् 1939 में आयोजित त्रिपुरा अधिवेशन में अध्यक्ष पद के चुनाव के समय सुभाष के सम्मुख गांधी जी के उतारे गये प्रत्याशी सीता रमैया को करारी हार का सामना करना पड़ा। सुभाष की यह जीत उनकी क्रान्तिकारी विचारधारा की जीत थी, दूसरी ओर गांधी जी के अंहिसावादी दर्शन की अभूतपूर्व पराजय।
    इस पराजय का बदला गांधीजी और उनके समर्थकों ने सुभाष को अध्यक्ष पद से हटाकर लिया। सुभाष शांत नहीं बैठे। उनका कांग्रेस से मोह भंग हो गया। वे 20 जून 1943 को टोकियो पहुंचे और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के वृद्ध योद्धा रास बिहारी बोस से ‘आजाद हिंद फौज’ की बागडोर अपने हाथो में ले ली। उन्होंने ‘आजाद हिंद फौज’ के बलवूते लड़ते हुए अंडमान-निकोवार द्वीप समूह पर अपना भारतीय झण्डा लहराया। वहां अपनी एक बैंक स्थापित की और एक रेडियो स्टेशन बनाया। वहीं से उन्होंने भारतीयों को संदेश दिया-तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।
    इसके बाद ‘आजाद हिंद फौज’ ने कोहिमा जीता, इंफाल को भी जीतने का प्रयास किया। सुभाष की सेना के भारत में प्रवेश करने पर कांग्रेस के नेताओं की प्रतिक्रिया थी-‘‘सुभाष भारत की ओर आगे बढ़ा तो नंगी तलवारों से उसका और उसकी फौज का सामना किया जायेगा।’’
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हिटलर ने भी माना सुभाष को महान +रमेशराज




हिटलर ने भी माना सुभाष को महान

+रमेशराज
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अपने समय के सर्वोच्च क्रान्तिकारी सुभाषचन्द्र बोस ने फ्रांसीसी विद्वान रोम्यारोलां से सन् 1935 में कहा था - ‘‘भारत में एक ऐसा राजनीतिक दल होना चाहिए जो किसानों और मजदूरों के हित को अपना हित समझे। मैं कहना चाहूँगा कि गॉंधी जी राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मुद्दों पर कोई निश्चित मत नहीं रखते। उनकी प्रकृति समझौतावादी है। ’’
फरवरी 1938 में जब सुभाष हरिपुर अधिवेशन में कांग्रेस के अघ्यक्ष बने तो उन्होंने इस अवसर पर स्पष्ट कहा- ‘‘जिसे तुम अहिंसा कह रहे हो, वह पहले दर्जे की कायरता है। एक उजला बन्दर घुड़काता है तो तुम कांपने लगते हो । क्या इसी तरीके से भारत आजाद होगा? इसके लिए शौर्य चाहिए, वीरता चाहिए और चाहिए खून। तुम अगर मुझे ये दे सकते हो तो मैं आजादी का वादा कर सकता हूँ । ’’
जब हिजली और चटगॉंव में नौकरशाही का नंगा नाच सर्वत्र दिखाई दे रहा था तब हिजली-कांड के विरोध में कलकत्ता में आयोजित एक विराट सभा के विराट जनसमूह के बीच सुभाष ने गर्जना की-‘‘जो साम्राज्य एक दिन में बना है, वह एक रात में नष्ट भी होगा।’’
सुभाष की इसी प्रकार की एक नहीं अनेक सभाओं में हुयी सिंह-गर्जनाओं का परिणाम यह हुआ कि वे युवाओं के मस्तिष्क पर गर्म खून की तरह छा गये। गॉंधी जी की नीतियों का शीतल स्पर्श अब उनसे कोसों दूर था। इसी युवा वर्ग ने मार्च 1939 में कंग्रेस के त्रिपुरा अधिवेशन में सुभाष को अघ्यक्ष पद के लिए खड़ा कर दिया। इस अधिवेशन में गाँधी जी द्वारा खड़ा किया गया प्रत्याशी पट्टाभि सीतारमैया लगभग दो हजार वोटों से पराजित हो गया। इस पराजय को गाँधी जी ने अपनी पराजय मानकर सुभाष के अघ्यक्ष बनने का विरोध ही नहीं किया बल्कि उन्हें हटाने के लिए कार्यसमिति के अपने बारह शिष्यों के माध्यम से त्यागपत्र देने को कहा । त्यागपत्र देने वालों में पण्डित जवाहर लाल नेहरू भी थे। दरअसल गाँधी जी चाहते थे कि सुभाष उनकी कठपुतली बनकर कार्य करें। सुभाष को यह स्थिति गवारा न थी। अतः उन्होंने अघ्यक्ष पद से इस्तीपफा देते हुये गाँधी जी पर यह टिप्पणी की-‘‘जो व्यक्ति अभी तक मैंसे नहीं उभर सका, वह भारत माता की क्या सेवा कर पायेगा।’’
सुभाष किसी के आगे नतमस्तक होने के बजाय गर्व से जीवन जीने की विचारधारा को आगे बढ़ाने वाले व्यक्तियों में से एक थे, अतः त्यागपत्र के बाद उनके मन में बार-बार यही सवाल कौंधता कि उल्टी सोच और व्यक्तिगत प्रतिशोध में उलझे नेताओं के हाथों में यदि स्वराज्य प्राप्ति के बाद सत्ता आयी तो इस देश का क्या होगा ?’
ऐसे ही ज्वलंत सवालों को लेकर जब वे 22 जून 1940 को स्वातंत्रवीर सावरकर से मिले तो उन्होंने सुभाष को सलाह दी-‘‘कलकत्ता में अंग्रेजों की मूर्तियों को सार्वजनिक स्थानों से हटाने के लिये आंदोलन करने से कुछ नहीं होगा। अंग्रेज इस समय भयानक युद्ध में फॅंसे हुये हैं, छोटे-मोटे आंदोलन कर जेल में सड़ने से तो अच्छा है कि आप रासबिहारी बोस की तरह भारत से दूर जाकर कोई ऐसा ही सैन्य संगठन खड़ा कर अंग्रेजों को टक्कर दें।’’
    सुभाष के मन में सावरकर की योजना घर कर गयी और वे 16 जनवरी 1941 की रात्रि 8 बजे पुलिस को चकमा देकर पठान के भेष में अपने मकान से भागने में सफल हो गये।
बर्लिन पहुँचकर जब सुभाष दुनिया के सबसे बड़े तानाशाह और अंग्रेजों के कट्टर दुश्मन हिटलर से मिले तो उसने बड़े ही जोशभरे अंदाज में हाथ मिलाया। कुछ देर के वार्तालाप के उपरांत दोनों ही इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ब्रिटिश सरकार धोखेबाजी और विश्वासघात की नीतियों को नहीं छोड़ेगी। इसलिये आवश्यक है कि अंग्रेजों पर भारत की बाहरी सीमा से हमले किये जायें। भारत जब आजाद हो जाये तो उसकी आजादी बरकार रखी जायेगी।’’
 योजनानुसार जर्मनी के विरुद्ध अंग्रेजों का साथ देने वाले भारतीय सैनिकों को युद्ध बंद करने के संदेशपत्र गिराये गये। सुभाष के संदेशपत्रों का प्रभाव यह हुआ कि 45 हजार भारतीय सैनिकों ने कर्नल हसन के नेतृत्व में आत्मसमर्पण कर दिया जिन्हें लेकर सुभाष ने आजाद हिंद फौजकी स्थापना की । इस अवसर पर हिटलर ने आजाद हिंद फैाज की सलामी ली और अपने गद्गद कंठ से संबोधित करते हुये कहा-‘‘महान भारतवासी सैनिको! आप धन्य हैं और आपके नेताजी बधाई के पात्र हैं। आपके नेताजी का दर्जा मुझसे कहीं अधिक ऊॅंचा है। मैं केवल आठ करोड़ जर्मनों का लीडर हूँ , जबकि सुभाषजी 40 करोड़ भारतीयों के नेता हैं। नेताजी हर कोण से मुझसे बड़े राष्ट्रनायक हैं। मैं और मेरे जर्मन सैनिक उन्हें प्रणाम करते हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि नेताजी के नेतृत्व में भारत एक दिन अवश्य स्वतंत्र होगा |’’
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अमर शहीद स्वामी श्रद्धानंद +रमेशराज




अमर शहीद स्वामी श्रद्धानंद

+रमेशराज
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क्या आप विश्वास कर सकते हैं कि एक व्यक्ति जो रईसों के बिगडै़ल बेटे की तरह अहंकारी, उन्मादी, भोगविलास की समस्त रंगीनियों का आनंद लेने वाला रहा हो, उसके सम्पर्क में एक महर्षि आये और उसके चरित्र, व्यवहार और दैनिक क्रियाकलाप में आमूल परिवर्तन आ जाये। वह असुर के विपरीत सुर अर्थात् देवरूप व्यवहार करने लगे, है न ताज्जुब की बात! लेकिन इसमें ताज्जुब कैसा? बाल्मीकि का जीवन-चरित्र भी तो इसी प्रकार का रहा था।
स्वामी श्रद्धानंद भी एक ऐसे ही देशभक्त और तेजस्वी सन्यासी थे जिनका प्रारंभिक जीवन भोगविलास के प्रसाधनों के बीच बीता। स्वामी श्रद्धानंद बनने से पूर्व इनका नाम मुंशीराम थ। पिता पुलिस विभाग में ऊंचे ओहदे पर थे, सो उनके पुत्र मुंशीराम को पैसे की कोई कमी न थी। परिणाम यह हुआ कि वे अपने पिता के ऐसे बिगडै़ल पुत्र बन गये जो दिन-रात मांस-मदिरा का सेवन करता। सुन्दरता का भ्रम पैदा करने वाली भौतिक पदार्थों की चकाचौंध ने इतना घेर लिया कि सिवाय रंगीनियों के आनंद के उन्हें कुछ न सूझता।
वैभवता से परिपूर्ण जीवन के इसी मोड़ पर जब उनकी भेंट आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद से हुई तो उन्होंने लम्बे समय तक स्वामीजी से वाद-विवाद किया। दयानंदजी के अकाट्य तर्कों के सम्मुख वे अन्ततः नतमस्तक हो गये। नास्तिकता की जगह आस्तिकता ने ले ली। अवगुणों के स्थान पर सद्गुण आलोकित हो उठे। इस प्रकार बिगड़ैल मुंशीराम अपना पूर्व नाम त्यागकर स्वामी श्रद्धानंद के वेश में ही नहीं आये, उन्होंने आर्य समाज को इतना पुष्पित-पल्लवित किया कि स्वामी दयानंद के बाद उनका नाम इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है।
गुरुकुल शिक्षा पद्यतिका जो सपना स्वामी दयानंद संजोये थे, उसे साकार करने के लिए स्वामी श्रद्धानंद ने प्रतिज्ञा ली कि जब तक गुरुकुल की स्थापनार्थ तीस हजार रुपये की व्यवस्था नहीं कर लूंगा, तब तक घर में पैर नहीं रखूंगा |
स्वामी श्रद्धानंद का यह संकल्प कोई असाधारण कार्य नहीं था। इसके लिए उन्होंने घर-घर जाकर चंदा इकट्ठा किया। अन्ततः कांगड़ी के जंगलों में नये तीर्थ गुरुकुलकी स्थापना हुई।
स्वामीजी 18 वर्ष गुरुकुल के आचार्य पद पर रहे। उन्होंने मातृभाषा हिन्दी को शिक्षा का माध्यम बनाकर यह सिद्ध कर दिया कि हिन्दी में भी विज्ञान की उच्च तकनीकी शिक्षा दी जा सकती है। आचार्य पद पर कार्य करते हुए उन्होंने अनेक स्नातकों को विज्ञान, दर्शन, इतिहास के विषय में मौलिक ग्रन्थों का सृजन कराया। नयी पारिभाषिक शब्दावली तैयार की।
अपने लोकमंगलकारी विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने श्रद्धा’, ‘विजयऔर दैनिक अर्जुननामक समाचार पत्रों का प्रकाशन किया, जिनमें राष्ट्रीयता की भावना और चरित्र-निर्माण पर विशेष बल दिया जाता। साथ ही जात-पांत के बन्धन तोड़ने के लिए एक विशेष वैचारिक मुहिम चलायी। दलितोद्धार और छूआछूत निवारण हेतु भी ये समाचार पत्र वैचारिक हथियार बने।
गांधी ने जब असहयोग आन्दोलन चलाया तो स्वामीजी ने उस आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। जब उन्हें अमृतसर कांग्रेस अधिवेशन का स्वागताध्यक्ष बनाया गया तो उन्होंने इस मंच से हिन्दी में बोलते हुए अछूतोद्धार पर विशेष बल दिया।
अंग्रेजों का शासन स्वामीजी की आंखों में कांटे की तरह खटकता था। वे अंग्रेजी भाषा और गोरों की सत्ता को भारत में किसी भी प्रकार नहीं देखना चाहते थे। परतंत्र भारत-माता को देखकर उनका मन गहरे दुःख और विद्रोह की भावना से भरा हुआ था, अतः जब अमृतसर में अंग्रेजी हुकूमत ने विद्रोह को कुचलने के लिये लाठियां चलवायीं, गोलियां बरसायीं तो इतनी बड़ी घटना पर स्वामीजी भला चुप कैसे रहते। वे हजारों विप्लवियों को लेकर लाल किले के सामने प्रदर्शन की तैयारी करने लगे।
सैकड़ों घुड़सवारों के साथ जब कमिश्नर ने भीड़ को तितर-बितर करने का आदेश दिया तो स्वामीजी ने बिना कोई खौफ खाये जुलूस को आगे बढ़ते रहने का आदेश दिया। गोरखा सैनिकों की संगीनों के साये में जुलूस निरंतर आगे बढ़ता ही रहा। तभी एक गोरे फौजी ने उनके सामने बन्दूक तानकर जुलूस खत्म करने की बात कही। स्वामीजी ने अपनी छाती उस अंग्रेज फौजी के सामने कर दी और कहा-‘‘ भले ही मुझे गोलियों से भून दो लेकिन ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों के खिलाफ यह प्रदर्शन रुकेगा नहीं।’’
स्वामीजी की इस सिंह गर्जना के समक्ष संगीनों के कुन्दे नीचे झुक गये। किन्तु दुर्भाग्य देखिए कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के बंटवारे को लेकर हिन्दुस्तान में उन्माद फैला तो एक मुस्लिम धार्मिक उन्मादी ने इस सिंह को गोली मार दी। भले ही आज स्वामी श्रद्धानंद हमारे बीच न हों किन्तु उनकी गुरुकुलकी स्थापना, देशभक्ति, हिन्दी-प्रेम, अछूतोद्धार के कार्य, जात-पांत मिटाने के संकल्प हमें नव प्रेरणा देते रहेंगे।
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सम्पर्क- 15/109, ईसानगर, अलीगढ़
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स्वामी श्रद्धानंद का हत्यारा, गांधीजी का प्यारा



स्वामी श्रद्धानंद का हत्यारा, गांधीजी का प्यारा 
   
+रमेशराज
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    इस बात से कोई भी इन्कार नहीं कर सकता कि सबसे अधिक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी आर्य समाज के राष्ट्रवादी चिन्तन की तप्त विचारधारा से तपकर सोने की भाँति चमके। रानी लक्ष्मीबाई, तिलक, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंहअजित सिंह, भगवती चरण वोरा , सुखदेव, राजगुरु, गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे अनेक आत्म बलिदानियों के साथ-साथ स्वराज, स्वदेशी, विदेशी वस्तुओं के वहिष्कार, स्त्री शिक्षा, दलितोद्धार और गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के प्रबल समर्थक तथा अंग्रेजों के छक्के छुड़ा देने वाले स्वामी श्रद्धानंद का स्वतन्त्रता संग्राम का जज्बा भी उस आत्म बलिदान की गाथा है जिसे भुलाया नहीं जा सकता।
    लेकिन इतिहासकार डॉ. मंगाराम की पुस्तक क्या गांधी महात्मा थे?’ के तथ्यों के प्रकाश में देखें तो गांधीजी को आर्य समाजियों से बेहद चिढ़ थी। डाक्टर साहब के अनुसार -‘‘गांधीजी ने आर्य समाज, सत्यार्थ प्रकाश, महर्षि दयानंद और स्वामी श्रद्धानंद की विभिन्न प्रकार से आलोचना की। गांधीजी ने कहा-‘‘स्वामी श्रद्धानंद पर भी लोग विश्वास नहीं करते हैं। मैं जानता हूँ कि उनकी तकरीरें ऐसी होती हैं जिनसे कई बार बहुतों को गुस्सा आता है। दयानंद सरस्वती को मैं बड़े आदर की दृष्टि से देखता हूँ, पर उन्होंने अपने हिन्दू-धर्म को संकुचित और तंग बना दिया है। आर्य समाज की बाइबिल सत्यार्थ प्रकाशको मैंने दो बार पढ़ा है। यह निराशा और मायूसी प्रदान करने वाली किताब है।’’
    डॉ. मंगा राम ने पुस्तक में आगे लिखा है-‘‘स्वामी श्रद्धानंद को 23 दिसम्बर 1926 को अब्दुल रशीद नामक एक युवक ने उस समय गोली से मार दिया, जब वे रुग्ण शैया पर पड़े हुए थे। गांधीजी ने स्वामीजी के हत्यारे को प्यारे भाई रशीदकहकर सम्बोधित किया। उसके द्वारा की गयी जघन्य हत्या की निन्दा करने के स्थान पर उस हत्यारे के प्रति बरती गयी उदारता क्या गांधी जी की नैतिकता गिरावट को प्रकट नहीं करती? भले ही ब्रिटिश सरकार ने अब्दुल रशीद को फाँसी पर लटका दिया किन्तु उसको बचाने का प्रत्यत्न करने वाले वकील आसफअली गांधीजी के भक्त और कांग्रेस के नेता थे।
    स्वामी श्रद्धानंद की हत्या के समय गांधीजी कांग्रेस के 1926 के गोहाटी अधिवेशन में भाग ले रहे थे। जब उन्हें स्वामीजी की हत्या का समाचार मिला तो गांधीजी ने कहा-‘‘ऐसा तो होना ही था। अब आप शायद समझ गये होंगे कि किस कारण मैंने अब्दुल रशीद को भाई कहा है और मैं पुनः उसे भाई कहता हूँ। मैं तो उसे स्वामीजी का हत्या का दोषी नहीं मानता। वास्तव में दोषी तो वे हैं जिन्होंने एक-दूसरे के विरुद्ध घृणा फैलायी।’’
    स्वामी श्रद्धानंद के अतिरिक्त प्रख्यात आर्य उपदेशक पं. लेखराम, दिल्ली के प्रसिद्ध आर्य समाजी नेता लाल नानक चंद, महाशय राजपाल, सिन्ध के आर्य नेता नाथूरमल शर्मा आदि भी कट्टरपंथियों द्वारा मारे गये किन्तु गांधीजी ने इन आर्य विद्वानों और नेताओं की हत्या की निंदा में कभी भी कोई शब्द व्यक्त नहीं किया। जिस प्रकार स्वामी श्रद्धानंद जैसे मूर्धन्य नेता की हत्या किये जाने पर गांधीजी ने उनके हत्यारे अब्दुल रशीद की आलोचना नहीं की, उसी प्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या किये जाने पर भी उन्होंने हत्यारों की निंदा नहीं की।
    कुल मिलाकर डॉ. मंगा राम अपनी पुस्तक क्या गांधी महात्मा थे?’ के माध्यम से अंहिसा के पुजारी महात्मा गांधी की हिंसा को बल प्रदान करने वाली इस सोच के पीछे यह तर्क देते हैं कि-‘‘गांधीजी समझते थे कि मुस्लिम हत्यारों की निंदा करने पर उनकी वांछित हिन्दू-मुस्लिम एकता सम्भव नहीं हो पायेगी तथा उन्हें साम्प्रदायिक कहकर बदनाम किया जायेगा।
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रोटियों से भी लड़ी गयी आज़ादी की जंग +रमेशराज

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